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9/05/2021

Celebration of Teacher's Day


डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन जीवन परिचय 

जीवन परिचय बिंदु राधाकृष्णन जीवन परिचय
पूरा नामडॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन
धर्महिन्दू
जन्म5 सितम्बर 1888
जन्म स्थानतिरुमनी गाँव, मद्रास
माता-पितासिताम्मा, सर्वपल्ली विरास्वामी
विवाहसिवाकमु (1904)
बच्चे5 बेटी, 1 बेटा

डॉ राधाकृष्णन का जन्म 5 सितम्बर 1888 को तमिलनाडु के छोटे से गांव तिरुमनी में ब्राह्मण परिवार में हुआ था. इनके पिता का नाम सर्वपल्ली विरास्वामी था, वे गरीब जरुर थे किंतु विद्वान ब्राम्हण भी थे. इनके पिता के ऊपर पुरे परिवार की जिम्मदारी थी, इस कारण राधाकृष्णन को बचपन से ही ज्यादा सुख सुविधा नहीं मिली. राधाकृष्णन  ने 16 साल की उम्र में अपनी दूर की चचेरी बहन सिवाकमु से शादी कर ली. जिनसे उन्हें 5 बेटी व 1 बेटा हुआ. इनके बेटे का नाम सर्वपल्ली गोपाल है, जो भारत के महान इतिहासकारक थे. राधाकृष्णन जी की पत्नी की मौत 1956 में हो गई थी. भारतीय क्रिकेट टीम के महान खिलाड़ी वीवी एस लक्ष्मण इन्हीं के खानदान से ताल्लुक रखते है.

डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी की शिक्षा 

डॉ राधाकृष्णन का बचपन तिरुमनी गांव में ही व्यतीत हुआ. वहीं से इन्होंने अपनी शिक्षा की प्रारंभ की. आगे की शिक्षा के लिए इनके पिता जी ने क्रिश्चियन मिशनरी संस्था लुथर्न मिशन स्कूल, तिरुपति में दाखिला करा दिया. जहां वे 1896 से 1900 तक रहे. सन 1900 में डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने वेल्लूर के कॉलेज से शिक्षा ग्रहण की. तत्पश्चात मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज, मद्रास से अपनी आगे की शिक्षा पूरी की. वह शुरू से ही एक मेंधावी छात्र थे. इन्होंने 1906 में दर्शन शास्त्र में M.A किया था. राधाकृष्णन जी को अपने पुरे जीवन शिक्षा के क्षेत्र में स्कालरशिप मिलती रही.

डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन के करियर की शुरुवात –

1909 में राधाकृष्णन जी को मद्रास प्रेसीडेंसी कॉलेज में दर्शनशास्त्र का अध्यापक बना दिया गया| सन 1916 में मद्रास रजिडेसी कालेज में ये दर्शन शास्त्र के सहायक प्राध्यापक बने. 1918 मैसूर यूनिवर्सिटी के द्वारा उन्हें दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर के रूप में चुना गया| तत्पश्चात वे इंग्लैंड के oxford university में भारतीय दर्शन शास्त्र के शिक्षक बन गए. शिक्षा को डॉ राधाकृष्णन पहला महत्व देते थे. यही कारण रहा कि वो इतने ज्ञानी विद्वान् रहे. शिक्षा के प्रति रुझान ने उन्हें एक मजबूत व्यक्तित्व प्रदान किया था. हमेशा कुछ नया सीखना पढने के लिए उतारू रहते थे. जिस कालेज से इन्होंने M.A किया था वही का इन्हें उपकुलपति बना दिया गया. किन्तु डॉ राधाकृष्णन ने एक वर्ष के अंदर ही इसे छोड़ कर बनारस विश्वविद्यालय में उपकुलपति बन गए. इसी दौरान वे दर्शनशास्त्र पर बहुत सी पुस्तकें भी लिखा करते थे|

डॉ.राधाकृष्णन को मिले सम्मान व अवार्ड 

  • शिक्षा और राजनीति में उत्कृष्ट योगदान देने के लिए डॉ. राधाकृष्णन को सन 1954 में सर्वोच्च अलंकरण “भारत रत्न” से सम्मानित किया गया.
  • 1962 से राधाकृष्णन जी के सम्मान में उनके जन्म दिवस 5 सितम्बर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की गई|
  • सन 1962 में डॉ. राधाकृष्णन को “ब्रिटिश एकेडमी” का सदस्य बनाया गया.
  • पोप जॉन पाल ने इनको “गोल्डन स्पर” भेट किया.
  • इंग्लैंड सरकार द्वारा इनको “आर्डर ऑफ़ मेंरिट” का सम्मान प्राप्त हुआ.

डॉ. राधाकृष्णन ने भारतीय दर्शन शास्त्र एवं धर्म के उपर अनेक किताबे लिखी जैसे “गौतम बुद्धा: जीवन और दर्शन” , “धर्म और समाज”, “भारत और विश्व” आदि. वे अक्सर किताबे अंग्रेज़ी में लिखते थे.

1967 के गणतंत्र दिवस पर डॉ राधाकृष्णन ने देश को सम्बोधित करते हुए यह स्पष्ट किया था, कि वह अब किसी भी सत्र के लिए राष्ट्रपति नहीं बनना चाहेंगे और बतौर राष्ट्रपति ये उनका आखिरी भाषण रहा.

डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन की मृत्यु 

17 अप्रैल 1975 को एक लम्बी बीमारी के बाद डॉ राधाकृष्णन का निधन हो गया. शिक्षा के क्षेत्र में उनका योगदान हमेंशा याद किया जाता है. इसलिए 5 सितंबर को शिक्षक दिवस मनाकर डॉ.राधाकृष्णन के प्रति सम्मान व्यक्त किया जाता है. इस दिन देश के विख्यात और उत्कृष्ट शिक्षकों को उनके योगदान के लिए पुरुस्कार प्रदान किए जाते हैं. राधाकृष्णन को मरणोपरांत 1975 में अमेंरिकी सरकार द्वारा टेम्पलटन पुरस्कार से सम्मानित किया गया, जो कि धर्म के क्षेत्र में उत्थान के लिए प्रदान किया जाता है. इस पुरस्कार को ग्रहण करने वाले यह प्रथम गैर-ईसाई सम्प्रदाय के व्यक्ति थे.

डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन के अनमोल वचन 

Sarvepalli radhakrishnan quotes

SR quotes

डॉ राधाकृष्णन  ने अपने जीवन के 40 वर्ष एक शिक्षक बन कर रहे. शिक्षा के क्षेत्र में और एक आदर्श शिक्षक के रूप में डॉ राधाकृष्णन को हमेंशा याद किया जाएगा.

1- राधाकृष्णन अपने छात्रों के बीच बहुत लोकप्रिय थे। जब वह मैसूर यूनिवर्सिटी छोड़कर कलकत्ता यूनिवर्सिटी में पढ़ाने के लिए जाने लगे तो उनके छात्रों ने उनके लिए फूलों से सजी एक बग्धी का प्रबंध किया और उसे खुद खींचकर रेलवे स्टेशन तक ले गए।


2- राधाकृष्ण की शादी दूर की एक कजन से हुई थी। उनकी शादी मात्र 16 साल की उम्र ही हो गई थी। उनकी 5 बेटियां और 1 बेटा हुआ।

3- राधाकृष्ण के पिता नहीं चाहते थे कि उनका बेटा इंग्लिश सीखे। बल्कि उनकी ख्वाहिश थी कि वह पंडित या पुजारी बने। लेकिन राधाकृष्ण इतने तेज थे कि उन्हें पहले तिरूपति के स्कूल भेजा गया और फिर वेल्लोर।

4- वह बेहद साधारण और विनम्र स्वभाव के थे। भारत का राष्ट्रपति बनने के बाद भी उन्होंने अपनी सैलरी से मात्र ढाई हजार रुपये लेते थे, जबकि बाकी सैलरी प्रधानमंत्री के राष्ट्रीय राहत कोष को दान कर देते थे।

5- राधाकृष्णन के बारे में एक किस्सा है जो शायद ही लोग जानते होंगे। वह जब चीन के दौरे पर गए थे तो वहां वह मशहूर क्रांतिकारी, राजनैतिक विचारक और कम्युनिस्ट दल के नेता माओ से मिले। मिलने के बाद उन्होंने माओ के गाल थपथपा दिए। इससे माओ हतप्रभ रह गए। लेकिन राधाकृष्णन ने यह कहकर सभी का दिल जीत लिया कि वह उनसे पहले स्टालिन और पोप के साथ ऐसा कर चुके हैं।

6- डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने घोषणा की कि सप्ताह में दो दिन कोई भी व्यक्ति उनसे बिना पूर्व अनुमति के मिल सकता है। इस तरह से उन्होंने राष्ट्रपति को आम लोगों के लिए भी खोल दिया था। यही नहीं, वह अमेरिका के राष्ट्रपति भवन वाइट हाउस में हेलिकॉप्टर से अतिथि के रूप में पहुंचे थे। इससे पहले दुनिया का कोई भी व्यक्ति वाइट हाउस में हेलिकॉप्टर से नहीं पहुंचा था।

7- जब राधाकृष्णन भारत के राष्ट्रपति बने तो दुनिया के महान दर्शनशास्त्रियों में से एक बर्टेंड रसेल ने काफी प्रसन्नता जाहिर की। उन्होंने कहा, 'डॉ.राधाकृष्णन का भारत का राष्ट्रपति बनना दर्शनशास्त्र के लिए सम्मान की बात है और एक दर्शनशास्त्री होने के नाते मुझे काफी प्रसन्नता हो रही है। प्लेटो ने दार्शनिकों के राजा बनने की इच्छा जताई थी और यह भारत के लिए सम्मान की बात है कि वहां एक दार्शनिक को राष्ट्रपति बनाया गया है।

8- राधाकृष्णन के सेंस ऑफ ह्यूमर का भी जवाब नहीं था। इसकी तारीफ सभी करते थे और उनका ह्यूमर अक्सर चर्चा का विषय बन जाता था। 1962 में ग्रीस के राजा ने जब भारत का राजनयिक दौरा किया तो सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने उनका स्वागत करते हुए कहा था- महाराज, आप ग्रीस के पहले राजा हैं, जो कि भारत में अतिथि की तरह आए हैं। सिकंदर तो यहां बगैर आमंत्रण का मेहमान बनकर आए थे।

8/28/2021

National Sports Day 2021Celebration

 

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National Sports Day 2021: It is observed on 29 August every year to commemorate the birthday of Indian hockey legend Major Dhyan Chand. Born on 29 August 1905 in present-day Prayagraj, UP, Major Dhyan Chand was the captain of the Gold medal-winning Indian hockey team at the Berlin Olympics in 1936. Let us read more about National Sports Award, its history, significance, and Major Dhyan Chand.
National Sports Day 2021: History, Significance and a Tribute to Major Dhyan Chand

Sports are important for the physical and mental well being of humans. Individuals who play sports remain healthy. India has produced many sporting legends like PT Usha, also known as Udanpari, Sachin Tendulkar, also known as Master Blaster, and Major Dhyan Chand, also known as 'Hockey Wizard'. 

National Sports Day is celebrated on 29 August every year to commemorate the birthday of Indian hockey legend Major Dhyan Chand. This article sheds light on Indian hockey wizard Major Dhyan Chand, history and significance of National Sports Day. 

Major Dhyan Chand

Widely known as 'Wizard of Hockey', the greatest hockey player of India, Major Dhyan Chand Singh, was born on 29 August 1905 in present-day Praygraj, UP. After getting a basic education, Dhyan Chand joined the Indian army as a soldier in 1922.

Major Dhyan Chand was a true sportsperson and was motivated by Subedar Major Tiwari, who was himself a sports lover,  to play Hockey. Dhyan Chand started playing hockey under his supervision.

Due to his outstanding performance in Hockey, Dhyan Chand was appointed as 'Lance Naik' in 1927 and was promoted to Nayak in 1932, and Subedar in 1936. The same year he Captained the Indian hockey team. He went on to become Lieutenant, Captain and was eventually promoted to Major.

Major Dhyan Chand's performance

Major Dhyan Chand was a great hockey player. If a ball stuck in his stick, it scored a goal. This was the reason that once his stick was broken during a match to check whether the stick has any magnet or something else inside it or not.

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Major Dhyan Chand, was part of the three-time Olympic gold medalist Indian Hockey Team.  At the Berlin Olympic Games of 1936, Dhyan Chand was elected the captain of the Indian Hockey team.

Major Dhyan Chand had scored more than 400 international goals in his career from 1926 to 1948 while scoring nearly 1,000 goals In his entire career. 

In a bid to pay tribute to such a legendary player, the Government of India decided to celebrate his birthday as the National Sports Day in 2012.

Before this recognition, he was awarded the Padma Bhushan Award by the Government of India in 1956, the third-largest civilian honour in India. 

National Sports Day Celebration

National Sports Day is celebrated extensively at the national level. It is organized every year in the Rashtrapati Bhavan and the President of India presents National Sports Awards to the outstanding players of the country. In 2020, the awards were presented virtually due to the COVID-19 pandemic. 

Under the National Sports Award, players and former players are honoured with awards such as Rajiv Gandhi Khel Ratna Award, Arjuna Award, and Dronacharya Award. Along with all these honours, the "Dhyan Chand Award" is also given on this day.

After the death of Major Dhyan Chand in 1979, the Indian Postal Department paid tribute to him and issued stamps in his honour. As a tribute to him, the National Stadium of Delhi has been renamed Major Dhyan Chand Stadium, Delhi.

National Sports Day: List of Awards

The following is the list of sports awards that are awarded on every National Sports Day, have a look!

Maulana Abul Kalam Azad Trophy

The Maulana Abul Kalam Azad Trophy was founded in 1956–1957. It is awarded to a university for “outstanding performance in inter-university tournaments” over the previous year.

Arjuna Award

The Arjuna Award was founded in 1961. It is awarded to athletes who have shown “constant great performance” over the previous four years. “A bronze statue of Arjuna, a certificate, ceremonial dress, and a cash prize of Rs. 15 lakh” are included in the award.

Dronacharya Award

The Dronacharya Award, founded in 1985, honors trainers who “create medal winners at prestigious international championships.” “A bronze statue of Dronacharya, a certificate, ceremonial robe, and a cash prize of Rs. 15 lakh” are included in the award.

Rajiv Gandhi Khel Ratna (Now Major Dhyan Chand Khel Ratna Award)

The Rajiv Gandhi Khel Ratna was founded in 1991–1992. It is awarded to athletes for their “most excellent performance by a sportsperson” during the previous four years. “A medallion, a certificate, and a cash prize of Rs. 25 lakh” are included in the award.

Dhyan Chand Award

The Dhyan Chand Award was founded in 2002. It is awarded to persons who have made a “lifetime contribution to the growth of sports.” “A Dhyan Chand statue, a certificate, ceremonial robe, and a monetary prize of ten lakh rupees” are included in the award.

Rashtriya Khel Prahotsahan Award

The Rashtriya Khel Protsahan Puruskar was founded in 2009. It is awarded to private and public organizations, as well as individuals, who have “played a visible role in the area of sports promotion and development” over the last three years.


7/10/2021

गुरू तेग बहादुर

   गुरू तेग बहादुर सिखों के नवें गुरु थे जिन्होने प्रथम गुरु नानक द्वारा बताए गये मार्ग का अनुसरण करते रहे। उनके द्वारा रचित ११५ पद्य गुरु ग्रन्थ साहिब में सम्मिलित हैं। उन्होने काश्मीरी पण्डितों तथा अन्य हिन्दुओं को बलपूर्वक मुसलमान बनाने का विरोध किया। इस्लाम स्वीकार न करने के कारण 1675 में मुगल शासक औरंगजेब ने सबके सामने उनका सिर कटवा दिया।


        गुरुद्वारा शीश गंज साहिब तथा गुरुद्वारा रकाब गंज साहिब उन स्थानों का स्मरण दिलाते हैं जहाँ गुरुजी की हत्या की गयी तथा जहाँ उनका अन्तिम संस्कार किया गया। विश्व इतिहास में धर्म एवं मानवीय मूल्यों, आदर्शों एवं सिद्धांत की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति देने वालों में गुरु तेग बहादुर साहब का स्थान अद्वितीय है।

        इस महावाक्य अनुसार गुरुजी का बलिदान न केवल धर्म पालन के लिए नहीं अपितु समस्त मानवीय सांस्कृतिक विरासत की खातिर बलिदान था। धर्म उनके लिए सांस्कृतिक मूल्यों और जीवन विधान का नाम था। इसलिए धर्म के सत्य शाश्वत मूल्यों के लिए उनका बलि चढ़ जाना वस्तुतः सांस्कृतिक विरासत और इच्छित जीवन विधान के पक्ष में एक परम साहसिक अभियान था।

प्रारंभिक जीवन :

        गुरु तेग़ बहादुर जी का जन्म पंजाब के अमृतसर नगर में हुआ था। ये गुरु हरगोविन्द जी के पाँचवें पुत्र थे। आठवें गुरु इनके पोते 'हरिकृष्ण राय' जी की अकाल मृत्यु हो जाने के कारण जनमत द्वारा ये नवम गुरु बनाए गए। इन्होंने आनन्दपुर साहिब का निर्माण कराया और ये वहीं रहने लगे थे। उनका बचपन का नाम त्यागमल था। मात्र 14 वर्ष की आयु में अपने पिता के साथ मुग़लों के हमले के ख़िलाफ़ हुए युद्ध में उन्होंने वीरता का परिचय दिया।

        उनकी वीरता से प्रभावित होकर उनके पिता ने उनका नाम त्यागमल से तेग़ बहादुर (तलवार के धनी) रख दिया। युद्धस्थल में भीषण रक्तपात से गुरु तेग़ बहादुर जी के वैरागी मन पर गहरा प्रभाव पड़ा और उनका का मन आध्यात्मिक चिंतन की ओर हुआ। धैर्य, वैराग्य और त्याग की मूर्ति गुरु तेग़ बहादुर जी ने एकांत में लगातार 20 वर्ष तक 'बाबा बकाला' नामक स्थान पर साधना की। आठवें गुरु हरकिशन जी ने अपने उत्तराधिकारी का नाम के लिए 'बाबा बकाले' का निर्देश दिया।

        गुरु जी ने धर्म के प्रसार लिए कई स्थानों का भ्रमण किया। आनंदपुर साहब से कीरतपुर, रोपण, सैफाबाद होते हुए वे खिआला (खदल) पहुँचे। यहाँ उपदेश देते हुए दमदमा साहब से होते हुए कुरुक्षेत्र पहुँचे। कुरुक्षेत्र से यमुना के किनारे होते हुए कड़ामानकपुर पहुँचे और यहीं पर उन्होंने साधु भाई मलूकदास का उद्धार किया।

        गुरु तेगबहादुर जी प्रयाग, बनारस, पटना, असम आदि क्षेत्रों में गए, जहाँ उन्होंने आध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक, उन्नयन के लिए रचनात्मक कार्य किए। आध्यात्मिकता, धर्म का ज्ञान बाँटा। रूढ़ियों, अंधविश्वासों की आलोचना कर नये आदर्श स्थापित किए। उन्होंने परोपकार के लिए कुएँ खुदवाना, धर्मशालाएँ बनवाना आदि कार्य भी किए। इन्हीं यात्राओं में 1666 में गुरुजी के यहाँ पटना साहब में पुत्र का जन्म हुआ। जो दसवें गुरु- गुरु गोविंद सिंह बने।

        गुरु तेगबहादुर जी सिखों के नौवें गुरु माने जाते हैं। औरंगज़ेब के शासन काल की बात है। औरंगज़ेब के दरबार में एक विद्वान पंडित आकर रोज़ गीता के श्लोक पढ़ता और उसका अर्थ सुनाता था, पर वह पंडित गीता में से कुछ श्लोक छोड़ दिया करता था। एक दिन पंडित बीमार हो गया और औरंगज़ेब को गीता सुनाने के लिए उसने अपने बेटे को भेज दिया परन्तु उसे बताना भूल गया कि उसे किन किन श्लोकों का अर्थ राजा से सामने नहीं करना था।

        पंडित के बेटे ने जाकर औरंगज़ेब को पूरी गीता का अर्थ सुना दिया। गीता का पूरा अर्थ सुनकर औरंगज़ेब को यह ज्ञान हो गया कि प्रत्येक धर्म अपने आपमें महान है किन्तु औरंगजेब की हठधर्मिता थी कि वह अपने के धर्म के अतिरिक्त किसी दूसरे धर्म की प्रशंसा सहन नहीं थी।

        जुल्म से त्रस्त कश्मीरी पंडित गुरु तेगबहादुर के पास आए और उन्हें बताया कि किस प्रकार ‍इस्लाम स्वीकार करने के लिए अत्याचार किया जा रहा है, यातनाएं दी जा रही हैं। गुरु चिंतातुर हो समाधान पर विचार कर रहे थे तो उनके नौ वर्षीय पुत्र बाला प्रीतम(गोविन्द सिंह ) ने उनकी चिंता का कारण पूछा ,पिता ने उनको समस्त परिस्थिति से अवगत कराया और कहा इनको बचने का उपाय एक ही है कि मुझको प्राणघातक अत्याचार सहते हुए प्राणों का बलिदान करना होगा।

        वीर पिता की वीर संतान के मुख पर कोई भय नहीं था कि मेरे पिता को अपना जीवन गंवाना होगा। उपस्थित लोगों द्वारा उनको बताने पर कि आपके पिता के बलिदान से आप अनाथ हो जाएंगे और आपकी मां विधवा तो बाल प्रीतम ने उत्तर दियाः “यदि मेरे अकेले के यतीम होने से लाखों बच्चे यतीम होने से बच सकते हैं या अकेले मेरी माता के विधवा होने जाने से लाखों माताएँ विधवा होने से बच सकती है तो मुझे यह स्वीकार है।”

        अबोध बालक का ऐसा उत्तर सुनकर सब आश्चर्य चकित रह गए। तत्पश्चात गुरु तेगबहादुर जी ने पंडितों से कहा कि आप जाकर औरंगज़ेब से कह ‍दें कि यदि गुरु तेगबहादुर ने इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया तो उनके बाद हम भी इस्लाम धर्म ग्रहण कर लेंगे। और यदि आप गुरु तेगबहादुर जी से इस्लाम धारण नहीं करवा पाए तो हम भी इस्लाम धर्म धारण नहीं करेंगे। इससे औरंगजेब क्रुद्ध हो गया और उसने गुरु जी को बन्दी बनाए जाने के लिए आदेश दे दिए।

        गुरुजी ने औरंगजेब से कहा कि यदि तुम जबरदस्ती लोगों से इस्लाम धर्म ग्रहण करवाओगे तो तुम सच्चे मुसलमान नहीं हो क्योंकि इस्लाम धर्म यह शिक्षा नहीं देता कि किसी पर जुल्म करके मुस्लिम बनाया जाए। औरंगजेब यह सुनकर आगबबूला हो गया। उसने दिल्ली के चांदनी चौक पर गुरु तेगबहादुर का शीश काटने का हुक्म दिया और गुरु तेगबहादुर ने हंसते-हंसते अपने प्राणों का बलिदान दे दिया।

        गुरु तेगबहादुर की याद में उनके शहीदी स्थल पर गुरुद्वारा बना है, जिसका नाम गुरुद्वारा शीश गंज साहिब है। गुरु तेगबहादुर जी की बहुत सारी रचनाएं गुरु ग्रंथ साहिब के महला 9 में संग्रहित हैं।। गुरुद्वारे के निकट लाल किला, फिरोज शाह कोटला और जामा मस्जिद भी अन्‍य आकर्षण हैं। गुरु तेगबहादुर जी की शहीदी के बाद उनके बेटे गुरु गोबिन्द राय को गुरु गद्दी पर बिठाया गया। जो सिक्खों के दसवें गुरु गुरु गोबिन्द सिंह जी बने।

        श्री कीरतपुर साहिब जी पहुँचकर भाई जैता जी से स्वयँ गोबिन्द राय जी ने अपने पिता श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी का शीश प्राप्त किया और भाई जैता जो रँगरेटा कबीले के साथ सम्बन्धित थे। उनको अपने आलिंगन में लिया और वरदान दिया ‘‘रँगरेटा गुरु का बेटा’’। विचार हुआ कि गुरुदेव जी के शीश का अन्तिम सँस्कार कहां किया जाए।

        दादी माँ व माता गुजरी ने परामर्श दिया कि श्री आनंदपुर साहिब जी की नगरी गुरुदेव जी ने स्वयँ बसाई हैं अतः उनके शीश की अँत्येष्टि वही की जाए। इस पर शीश को पालकी में आंनदपुर साहिब लाया गया और वहाँ शीश का भव्य स्वागत किया गया सभी ने गुरुदेव के पार्थिक शीश को श्रद्धा सुमन अर्पित किए तद्पश्चात विधिवत् दाह सँस्कार किया गया।

        कुछ दिनों के पश्चात भाई गुरुदिता जी भी गुरुदेव का अन्तिम हुक्मनामा लेकर आंनदपुर साहिब पहुँच गये। हुक्मनामे में गुरुदेव जी का वही आदेश था जो कि उन्होंने आंनदपुर साहिब से चलते समय घोषणा की थी कि उनके पश्चात गुरु नानक देव जी के दसवें उत्तराधिकारी गोबिन्द राय होंगे। ठीक उसी इच्छा अनुसार गुरु गद्दी की सभी औपचारिकताएं सम्पन कर दी जाएँ। उस हुक्मनामे पर परिवार के सभी सदस्यों और अन्य प्रमुख सिक्खों ने शीश झुकाया और निश्चय किया कि आने वाली बैसाखी को एक विशेष समारोह का अयोजन करके गोबिन्द राय जी को गुरूगद्दी सौंपने की विधिवत् घोषणा करते हुए सभी धर्मिक पारम्परिक रीतियाँ पूर्ण कर दी जाएँगी।

        सहनशीलता , कोमलता और सौम्यता की मिसाल के साथ साथ गुरू तेग बहादुर जी ने हमेशा यही संदेश दिया कि किसी भी इंसान को न तो डराना चाहिए और न ही डरना चाहिए । इसी की मिसाल दी गुरू तेग बहादुर जी ने बलिदान देकर. जिसके कारण उन्हें हिन्द की चादर या भारत की ढाल भी कहा जाता है उन्होंने दूसरों को बचाने के लिए अपनी कुर्बानी दी। गुरू तेग बहादुर जी को अगर अपनी महान शहादत देने वाले एक क्रांतिकारी युग पुरूष कह लिया जाए तो कहना जऱा भी गलत न होगा पूरा गुरू चमत्कार या करमातें नहीं दिखाता.

        वो उस अकालपुरख की रजा में रहता है और अपने सेवकों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करता है. गुरू तेग बहादुर जी ने धर्म की खातिर अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया. ऐसा कोई संत परमेश्वर ही कर सकता है जिसने अपने पर में निज को पा लिया हो. अर्थात्  अपने हृदय में परमात्मा को पा लिया  उसके भेद को तो कोई बिरला ही समझ सकता है आज जरूरत गुरू घर से जुड़ने की इसलिए तो गुरबाणी में कही गई बातों को अमली जामा पहनाने ।

        संसार को ऐसे बलिदानियों से प्रेरणा मिलती है, जिन्होंने जान तो दे दी, परंतु सत्य का त्याग नहीं किया। नवम पातशाह श्री गुरु तेग बहादुर जी भी ऐसे ही बलिदानी थे। गुरु जी ने स्वयं के लिए नहीं, बल्कि दूसरों के अधिकारों एवं विश्वासों की रक्षा के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। अपनी आस्था के लिए बलिदान देने वालों के उदाहरणों से तो इतिहास भरा हुआ है, परंतु किसी दूसरे की आस्था की रक्षा के लिए बलिदान देने की एक मात्र मिसाल है-नवम पातशाह की शहादत।


   



4/14/2021

Ambedkar Jayanti 2021

 

अम्बेडकर जयंती


अंबेडकर जयंती हर एक साल 14 अप्रैल को ही मनाई जाती है। इस महान व्यक्ति की आत्मा को श्रद्धांजलि देने के लिए इस दिन को भारत में सार्वजनिक अवकाश के रूप में घोषित किया गया है। डॉ। भीम राव अंबेडकर दलितों और अछूतों के अधिकारों के लिए सभी बाधाओं से लड़ने के लिए तैयार थे।


अम्बेडकर जयंती (बाबा साहेब डॉ भीमराव अम्बेडकर जयंती)

डॉ। बाबासाहेब अम्बेडकर एक भारतीय बहुदेववादी न्यायविद, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ और समाज सुधारक थे, जिन्हें अम्बेडकर के नाम से जाना जाता था। वे स्वतंत्र भारत के पहले कानून और न्याय मंत्री, भारतीय संविधान के जनक और भारत गणराज्य के निर्माता थे। अंबेडकर अपार प्रतिभा के छात्र थे।

अम्बेडकर की पहली मूर्ति कब स्थापित हुई

अंबेडकर [14 अप्रैल~ 1891~6 दिसंबर~ 1956] जिसको डॉ। बाबासाहेब अम्बेडकर के नाम से जाना जाता है एक भारतीय नीतिज्ञ, न्यायविद्, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ और समाज सुधारक थे। वे स्वतंत्र भारत के पहले कानून और न्याय मंत्री भी थे भारतीय संविधान के जनक और भारत गणराज्य के निर्माता थे। अंबेडकर अपार प्रतिभा के एस्टूडेन्ट थे।

भारतीय त्योहार

अम्बेडकर जयंती या भीम जयंती डॉ बाबासाहेब अम्बेडकर के रूप में भी जाना जाता है, अप्रैल के महीने में भारत में एक त्यौहार के रूप में मनाया जाता रहा है।

महिलाओं पर अंबेडकर के विचार

अंबेडकर का मानना था कि लोकतंत्र वास्तव में तब आएगा जब महिलाओं को पैतृक संपत्ति में बराबर का हिस्सा मिलेगा और उन्हें पुरुषों के समान अधिकार दिया जाएगा। डॉ। अंबेडकर की फर्म। यह माना जाता था कि महिलाओं की उन्नति तभी संभव होगी जब उन्हें घर परिवार और समाज में सामाजिक समानता मिलेगी।

अंबेडकर के धार्मिक विचार

आज एक तरफ भारत में, एक ओर, सनातनी हिंदू राष्ट्र निर्माण का नारा बुलंद करके हिंदुत्व की राजनीति पर हमला किया जा रहा है, तो दूसरी ओर वस्तुवादी दर्शन के अनुयायियों की संसदीय राजनीति मार्क्सवाद की मुसीबत में है।

फिर डॉ। बीआर अंबेडकर और कार्ल मार्क्स के क्रांतिकारी दर्शन के विचारों में समानता की दृष्टि एक प्रगतिशील भारतीय समाज के लिए वैचारिक अनिवार्यता बन गई है।

शिक्षक राव रशीब कास्बे ने ‘अंबेडकर और माक्र्स’ नामक एक प्रसिद्ध पुस्तक में लिखा है कि, b डॉ। बाबा साहेब अंबेडकर ने खुद बौद्ध (दर्शन) को ‘नवयान’ नाम दिया और पारंपरिक ‘धर्म’ और उनके ‘धम्म’ के बीच अंतर करते हुए लिखा कि ‘धर्म’ का उद्देश्य इस दुनिया की उत्पत्ति को समझना है, लेकिन ‘द’ धम्म का उद्देश्य इस दुनिया का पुनर्निर्माण करना है।

दूसरी ओर, मार्क्स अपनी रचनात्मकता में मार्क्सवादी दर्शन के शुरुआती बिंदु के रूप में ‘मनुष्य’ में विश्वास करते हुए अपने उद्धार का सपना देख रहे थे। इस प्रकार के ‘मुक्त मनुष्य’ को मार्क्स ‘संपूर्ण मानव’ कहते थे।

जिस तरह मार्क्स ने मुक्त मनुष्य को अपने दर्शन का प्रारंभिक बिंदु कहा, उसी तरह संपूर्ण मानव, इसी तरह बाबासाहेब अम्बेडकर ने ‘मनुष्य’ को अधिक महत्वपूर्ण माना। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि इतिहास की निर्माण प्रक्रिया में, मानव की भागीदारी शारीरिक स्थिति के बराबर है।

कार्ल मार्क्स द्वारा कही गई बात का हवाला देते हुए उन्होंने लिखा, ‘इतिहास के पास कुछ नहीं है’ न तो उसके पास धन है और न ही वह संघर्ष करता है, ये सभी चीजें मनुष्य की हैं, जीवित आदमी संघर्ष करता है और सब कुछ हो जाता है।

पुस्तक के दूसरे संस्करण के प्रकाशन के अवसर पर, राव साहेब कास्बे ने लिखा, ‘अंबेडकर ने बुद्ध और मार्क्स के बीच सैद्धांतिक समानता देखी, लेकिन उन्होंने उनके व्यवहार में अंतर देखा, यानी बुद्ध और मार्क्स दोनों कम्युनिस्ट थे।

लेकिन इसे लागू करने के दोनों तरीके अलग थे। ‘अम्बेडकर ने उनके साधनों के अंतर को समझाया है, जिस पर विचार किया जाना आवश्यक है। वह आगे लिखते हैं- इसलिए मार्क्स द्वारा वकालत किए गए थे भौतिकवाद में स्वचालित परिवर्तनों में यांत्रिक निश्चित तत्वों में विश्वास संभव नहीं है परन्तु वह एक क्रांतिकारी नव~भौतिकवादीथा जो मनुष्य के रचनात्मकता में विश्वास करता है।

मार्क्स का नव-भौतिकवाद मनुष्य से शुरू होकर मनुष्य पर समाप्त होता है। इसलिए मार्क्सवाद को एक व्यावहारिक दर्शन माना जाता है। कर्म के बिना एक दर्शन या तो हवा में उड़ने वाला है या यह उन लोगों की परंपराओं में एक दृष्टि (पौराणिक) बन जाता है जो विश्वास का व्यवसाय करते हैं, या यह एक औपचारिक और नीरस अनुष्ठान बन जाता है।

बाबा साहेब भी संपूर्ण मानव जाति के कल्याण को सर्वोपरि मानते थे।

इसीलिए, पुराने बौद्ध धर्म के विचार को एक गैर-सामाजिक निर्वाण के रूप में देखते हुए, उन्होंने ‘नवबोध धर्म’ या ‘नवयाना’ के विचार को गौण मान लिया। अम्बेडकर पुणे विश्वविद्यालय में पीठ के शिक्षक थे

साहेब कस्बे ने दलित आंदोलन और भारत में वाम आंदोलन की विफलताओं और अतीत की गलतियों और दोनों आंदोलनों के एकतरफा व्यवहार का ईमानदारी से आकलन करते हुए अपनी शोध पुस्तक तैयार की है।

जिसका हिंदी से मराठी में अनुवाद 2009 में रायगढ़ (छत्तीसगढ़) में उषा वायराकर अटेले, सहायक प्रोफेसर, सरकारी कॉलेज और आईपीटीए और प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन के साथ किया गया था। यह लेख हिंदी क्षेत्र के पाठकों के लिए इन विचारों को उद्धृत करता है।

देश के वर्तमान युग में, डॉ। भीमराव अंबेडकर के विचारों और कार्यों को गहराई से जानने और समझने के लिए आदिवासी, दलित और अन्य पिछड़े वर्गों के युवाओं में रुझान बढ़ रहा है। जिस तरह भारत में मार्क्सवाद के इस्तेमाल को लेकर वामपंथी विचारधारा के लोगों में नई जिज्ञासा पैदा होने लगी है।

यह केवल उचित है कि हम वामपंथी विचारधारा के लोग और राजनीति में भारतीय संविधान के वर्तमान ‘प्रस्तावना’ के पक्ष में अंबेडकर का पाठ करें। प्रस्तावना में लिखा गया

भारत एक संप्रभु समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य और संविधान का मुख्य उद्देश्य है – सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्रदान करना, विचारों की अभिव्यक्ति, धर्म की स्वतंत्रता, विश्वास और पूजा, कार्यालय और अवसर की समानता और सम्मान की रक्षा करना और व्यक्ति की अखंडता।

यह हमारे संविधान को महान बनाता है।
अब केंद्र में सत्तारूढ़ दल और उसके अनुयायियों द्वारा संविधान के इन उदात्त मूल्यों पर हमला किया जा रहा है, यह हम सभी के लिए गंभीर चिंता का विषय बन गया है।

जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष और जेएनयू प्रज्ञान में छात्र नेता कन्हैया कुमार द्वारा एक ऐतिहासिक भाषण के अंत में, उनके द्वारा नारा दिया गया – ‘जय भीम, लाल सलाम’, लोकतंत्र एकता, अम्बेडकरवादी और वामपंथी विचारधारा के निर्माण के लिए आए हैं। कॉल के रूप में बाहर। पूरे देश में इसका स्वागत किया गया।

अम्बेडकर और भारत का संविधान: भारत के राष्ट्रपति, भारत के राष्ट्रपति से लेकर सभी निर्वाचित प्रतिनिधियों ने अपने अधिकारों पर ईमानदारी के साथ काम करने का संकल्प लिया, वर्तमान सत्ताधारी दल द्वारा इसे बदलने और सांप्रदायिकता के पक्ष में माहौल बनाया। संघ परिवार। वह जा रहा है।

1984 से 1990 तक लोकसभा के महासचिव डॉ। सुभाष कश्यप द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘हमारा संविधान’ के अनुसार, ब्रिटिश भारत की विधानसभाओं से चुने गए सदस्यों से ली गई संविधान सभा में पार्टीवार विवरण थे,

कांग्रेस 208, मुस्लिम लीग -73, संघवादी -1, संघवादी-मुस्लिम -1, संघवादी अनुसूचित जाति -1, कृषक प्रजा -1, अनुसूचित जाति परिसंघ -1, सिख (गैर कांग्रेस) -1, कम्युनिस्ट -1, स्वतंत्र- 8, कुल – 296. कुल 389 सदस्यों को संविधान निकाय द्वारा गठित किया गया था, जिनमें उनके और रियासतों के प्रतिनिधि शामिल थे।

इस प्रकार, 9 दिसंबर, 1946 को संविधान सभा की विधिवत शुरुआत हुई, जिसमें भारत की सभी रियासतों और प्रांतों के प्रतिनिधि शामिल थे।

मसौदा समिति की नियुक्ति 29 अगस्त, 1947 को डॉ। भीमराव अंबेडकर की अध्यक्षता में की गई, जिसमें वे सात सदस्यों से बने थे। अन्य सदस्य थे

एन। गोपालसामी अयंगर, अल्लादी कृष्णस्वामी अय्यर, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, सैयद मोहम्मद सादुल्ला, एन.के. माधव राव और डीपी खेतान। 21 फरवरी 1946 को मसौदा समिति ने अपनी अंतिम रिपोर्ट संविधान सभा को सौंप दी। 26 नवंबर 1949 को संविधान सभा ने संविधान पारित किया।

26 जनवरी 1950 को संविधान लागू किया गया था, क्योंकि पहला स्वतंत्रता दिवस 26 जनवरी 1930 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा मनाया गया था। भारत 26 जनवरी 1950 को एक गणतंत्र बन गया, लेकिन डॉ। भीमराव अंबेडकर ने कहा था कि अंत होने से पहले संविधान सभा का काम, इस ऐतिहासिक सच्चाई को उजागर करना।

’26 जनवरी 1950 को, हम एक परस्पर विरोधी जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। हमें राजनीति और सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमानता मिलेगी। हमें इस असंगत स्थिति से जल्द से जल्द छुटकारा पाना होगा

अन्यथा, जो लोग इस असमानता को झेलेंगे, उन्हें लोकतंत्र के इस ढांचे से उड़ा दिया जाएगा, जिसे इस संविधान सभा ने इतने श्रम से बनाया है। ‘
संविधान को आंखें दिखाने वाली हिंदुत्व शक्तियां- शिक्षक गार्गी चक्रवर्ती ने लिखा है powers डॉ। अंबेडकर को भाजपा के कहने का नैतिक अधिकार नहीं है

शीर्षक के साथ एक पुस्तिका में लिखा है, ‘यह विडंबना है कि आज भाजपा डॉ। बीआर अंबेडकर को अपना बताकर उन्हें एक महान और दिव्य नेता के रूप में पेश कर रही है। जबकि अंबेडकर उनकी सभी गतिविधियों के कट्टर विरोधी थे, जो अभी भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के लिए काम करते हैं।

‘दलित अधिकारों के सबसे बड़े समर्थक के रूप में आंबेडकर ने अपनी जाति व्यवस्था के कारण हिंदुत्व की तीखी आलोचना की है। उन्होंने कई स्थानों पर और अपनी किताबों में ‘जाति व्यवस्था का’ संहार और भारतीय हिंदू धर्म में ‘विचारधारा’ में भी अपने विचार व्यक्त किए हैं।

उन्होंने कहा था, ‘यद्यपि मैं एक हिंदू परिवार में पैदा हुआ था, लेकिन मैं आपको पूरी ईमानदारी से विश्वास दिलाता हूं, कि मैं एक हिंदू के रूप में नहीं मरूंगा। उन्होंने अपनी मृत्यु से पहले 12 अक्टूबर, 1956 को नागपुर में देवभूमि में बौद्ध धर्म अपनाया था।

उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इस तर्क को कभी स्वीकार नहीं किया कि बौद्ध धर्म हिंदू धर्म का हिस्सा है।

3/13/2021

Biography of Sarojini Naidu


सरोजिनी नायडू


 ज न्म: 13 फरवरी 1879

मृत्यु: मार्च 2, 1949

उपलब्धियां: भारत कोकिला कहलाने वाली सरोजिनी नायडू भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पहली महिला अध्यक्ष थीं। आजादी के बाद वो पहली महिला राज्यपाल भी घोषित हुईं।

सरोजिनी नायडू एक मशहूर कवयित्री, स्वतंत्रता सेनानी और अपने दौर की महान वक्ता भी थीं। उन्हें भारत कोकिला के नाम से भी जाना जाता था।

प्रारंभिक जीवन

सरोजिनी नायडू का जन्म 13 फरवरी 1879 में हुआ था। उनके पिता अघोरनाथ चट्टोपध्याय एक वैज्ञानिक और शिक्षाशास्त्री थे। उन्होंने हैदराबाद के निज़ाम कॉलेज की स्थापना की थी। उनकी मां वरदा सुंदरी कवयित्री थीं और बंगाली भाषा में कविताएं लिखती थीं। सरोजिनी आठ भाई-बहनों में सबसे बड़ी थीं। उनके एक भाई विरेंद्रनाथ क्रांतिकारी थे और एक भाई हरिद्रनाथ कवि, कथाकार और कलाकार थे। सरोजिनी नायडू होनहार छात्रा थीं और उर्दू, तेलगू, इंग्लिश, बांग्ला और फारसी भाषा में निपुण थीं। बारह साल की छोटी उम्र में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली थी। उन्होंने मद्रास प्रेसीडेंसी में पहला स्थान हासिल किया था। उनके पिता चाहते थे कि वो गणितज्ञ या वैज्ञानिक बनें परंतु उनकी रुचि कविता में थी। उनकी कविता से हैदराबाद के निज़ाम बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने सरोजिनी नायडू को विदेश में पढ़ने के लिए छात्रवृत्ति दी। 16 वर्ष की आयु में वो इंग्लैंड गयीं। वहां पहले उन्होंने किंग कॉलेज लंदन में दाखिला लिया उसके बाद कैम्ब्रिज के ग्रीतान कॉलेज से शिक्षा हासिल की। वहां वे उस दौर के प्रतिष्ठित कवि अर्थर साइमन और इडमंड गोसे से मिलीं। इडमंड ने सरोजिनी को भारतीय विषयों को ध्यान में रख कर लिखने की सलाह दी। उन्होंने नायडू को भारत के पर्वतों, नदियों, मंदिरों और सामाजिक परिवेश को अपनी कविता में समाहित करने की प्रेरणा दी।

कैरियर

उनके द्वारा संग्रहित ‘द गोल्डन थ्रेशहोल्ड’ (1905), ‘द बर्ड ऑफ़ टाइम’ (1912) और ‘द ब्रोकन विंग’ (1912) बहुत सारे भारतीयों और अंग्रेजी भाषा के पाठकों को पसंद आई। 15 साल की उम्र में वो डॉ गोविंदराजुलू नायडू से मिलीं और उनको उनसे प्रेम हो गया। डॉ गोविंदराजुलू गैर-ब्राह्मण थे और पेशे से एक डॉक्टर। अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद सरोजिनी ने 19 साल की उम्र में विवाह कर लिया। उन्होंने अंर्तजातीय विवाह किया था जो कि उस दौर में मान्य नहीं था। यह एक तरह से क्रन्तिकारी कदम था मगर उनके पिता ने उनका पूरा सहयोग किया था। उनका वैवाहिक जीवन सुखमय रहा और उनके चार बच्चे भी हुए – जयसूर्या, पदमज, रणधीर और लीलामणि। वर्ष 1905 में बंगाल विभाजन के दौरान वो भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल हुईं। इस आंदोलन के दौरान वो गोपाल कृष्ण गोखले, रवींद्रनाथ टैगोर, मोहम्मद अली जिन्ना, एनी बेसेंट, सीपी रामा स्वामी अय्यर, गांधीजी और जवाहर लाल नेहरू से मिलीं। भारत में महिला सशक्तिकरण और महिला अधिकार के लिए भी उन्होंने आवाज उठायी। उन्होंने राज्य स्तर से लेकर छोटे शहरों तक हर जगह महिलाओं को जागरूक किया। वर्ष 1925 में वो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गयीं। सविनय अवज्ञा आंदोलन में वो गांधी जी के साथ जेल भी गयीं। वर्ष 1942 के  ̔भारत छोड़ो आंदोलन ̕  में भी उन्हें 21 महीने के लिए जेल जाना पड़ा। उनका गांधीजी से मधुर संबंध था और वो उनको मिकी माउस कहकर पुकारती थीं। स्वतंत्रता के बाद सरोजिनी भारत की पहली महिला राज्यपाल बनीं। उत्तर प्रदेश का राज्यपाल घोषित होने के बाद वो लखनऊ में बस गयीं। उनकी मृत्यु 2 मार्च 1949 को दिल का दौरा पड़ने से लखनऊ में हुई।

1/23/2021

Interesting facts about Netaji Subhash Chandra Bose on his 123rd Birth Anniversary



नेताजी सुभाष चंद्र बोस से जुडी खास बातें – Interesting facts about Netaji Subhash Chandra Bose

दोस्तों, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए सबसे अहम योगदान इतिहासकार क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानियों का मानते हैं. यह सत्य है कि बिना क्रांतिकारियों के आजादी संभव न थी. क्रांतिकारियों की उस फौज में एक ऐसे शख्स भी थे जिन्हें लोग नेताजी कहते थे और वह थे नेताजी सुभाष चन्द्र बोस।

कई लोग तो यह भी मानते हैं कि भारत सरकार ये जानती थी कि नेताजी विमान दुर्घटना में नहीं मरे लेकिन उन्होंने जनता से यह सच्चाई छुपाई और इस सच्चाई को छुपाने का एक बहुत बड़ा कारण भी था कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस महात्मा गांधी के विरोधी थे और कोई भी कांग्रेसी गांधी के विरोधी को पसंद नहीं करता. आइये जानते है महान सेनानी सुभाष चंद्र बोस से जुडी कुछ दिलचस्प बातें | 

(नोट – भारत सरकार ने नेताजी से जुडी गोपनीय फाइलों को जनवरी २०१६ में जनता के लिए खोल दिया है)
नेताजी सुभाष चंद्र बोस से जुडी खास बातें – Netaji Subhash Chandra Bose Facts :

1. आजाद हिंद फौज का गठन करके अंग्रेजों की नाक में दम करने वाले फ्रीडम फाइटर सुभाषचंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को उ़डीसा के कटक शहर में हुआ था. उनके पिता का नाम जानकीनाथ बोस और माँ का नाम प्रभावती था।

2. जानकीनाथ बोस कटक शहर के मशहूर वकील थे। अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें रायबहादुर का खिताब दिया था।

3. सुभाष चन्द्र बोस अपनी माता-पिता की 14 सन्तानों में से नौवीं सन्तान थे।

4. सुभाषचंद्र बोस ने भारतीय स्‍वतंत्रता संग्राम के सेनानी भगत सिंह की फांसी रुकवाने का भरसक प्रयत्‍न किया. उन्‍होंने गांधी जी से कहा कि वह अंग्रेजों से किया अपना वादा तोड़ दें लेकिन वह भगत सिंह को बचाने में नाकाम रहे.

5. उनके पिता की इच्छा थी कि सुभाष आई.सी.एस. बनें. उन्होंने अपने पिता की यह इच्छा पूरी की. 1920 की आई.सी.एस. परीक्षा में उन्होंने चौथा स्थान पाया मगर सुभाष का मन अंग्रेजों के अधीन काम करने का नहीं था. 22 अप्रैल 1921 को उन्होंने इस पद से त्यागपत्र दे दिया.

6. सन् 1933 में उन्हें देश निकाला दे दिया। 1934 में पिताजी की मृत्यु पर तथा 1936 में काँग्रेस के (लखनऊ) अधिवेशन में भाग लेने के लिए सुभाष चन्द्र बोस दो बार भारत आए, मगर दोनों ही बार ब्रिटिश सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर वापस देश से बाहर भेज दिया।

7. सबसे पहले गाँधीजी को राष्ट्रपिता कह कर सुभाष चंद्र बोस ने ही संबोधित किया था ।

8. सन् 1938 में सुभाष चन्द्र बोस कांग्रेस के अध्यक्ष हुए। अध्यक्ष पद के लिए गांधी जी ने उन्हें चुना था। गांधी जी तथा उनके सहयोगियों के व्यवहार से दुःखी होकर अन्ततः सुभाष चन्द्र बोस ने 29 अप्रैल, 1939 को कांग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया।

9. एक समय ऐसा था जब लौह पुरुष सरदार पटेल ने सुभाषचंद्र बोस के खिलाफ मामूली संपत्ति के लिए मुकदमा किया था, जबकि सच्‍चाई यह थी कि वह केवल गांधी के सम्‍मान में सुभाष को नीचा दिखाना चाहते थे।

10. अपने जीवनकाल में नेताजी को कुल 11 बार कारावास की सजा काटनी पड़ी. आखिरी बार 1941 को उन्‍हें कलकत्ता कोर्ट में पेश होना था लेकिन नेताजी अपने घर से भागकर जर्मनी चले गए और हिटलर से मुलाकात की.

11. सुभाषचंद्र बोस जी को नेताजी कहने वाला पहला शख्स एडोल्फ हिटलर ही था।

12. सुभाषचंद्र बोस 1934 में अपना इलाज करवाने आस्‍ट्रि‍या गए थे जहां उनकी मुलाकात एक एमिली शेंकल नाम की टाइपिस्‍ट महिला से हुई. नेताजी इस महिला से अपनी किताब टाइप करवाने के लिए मिले थे. इसके बाद नेताजी ने 1942 में इस महिला से शादी कर ली.

13. नेताजी ने दुनिया की पहली महिला फौज का गठन किया था।

14. नेताजी की मौत के संबंध में अब तक मिले साक्ष्‍यों के आधार पर नेताजी की मौत 18 अगस्त 1945 को ताइहोकू एयरपोर्ट पर उनके विमान के क्रेश होने से हुई थी. हालांकि इस बारे में पुख्‍ता जानकारी अभी तक आम लोगों के लिए जारी नहीं की गई है.

15. नेताजी सुभाष चंद्र बोस को 1992 में मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया लेकिन ये बाद में वापिस ले लिया।

16. यह बात शायद बहुत कम ही लोग जानते होंगे कि नेताजी की अस्थियां जापान के रैंकोजी मंदिर में एक पुजारी ने आज भी संभाल कर रखी हुई हैं।

17. उनका नारा ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आजादी दूंगा’ भारत का राष्ट्रीय नारा बन गया है।

18. कहा जाता है कि जब नेता जी ने जापान और जर्मनी से मदद लेने की कोशिश की थी तो ब्रिटिश सरकार ने 1941 में उन्हें ख़त्म करने का आदेश दिया था।

19. 5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के टाउन हाल के सामने ‘सुप्रीम कमाण्डर’ के रूप में नेता जी ने अपनी सेना को सम्बोधित करते हुए ‘दिल्ली चलो’ का नारा दिया।

20. 21 अक्टूबर 1943 को सुभाष बोस ने आजाद हिन्द फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से स्वतन्त्र भारत की अस्थायी सरकार बनायी।

21. इस सेना को जर्मनी, जापान, फिलीपाइन, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड ने मान्यता दी।

22. 1944 को आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजों पर आक्रमण किया और कुछ भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों से मुक्त भी करा लिया।

23. आजादी के लिए कोहिमा का युद्ध 4 अप्रैल 1944 से 22 जून 1944 तक लड़ा गया एक लंबा और बहुत ही भयानक युद्ध था।

24. 6 जुलाई 1944 को उन्होंने रंगून रेडियो स्टेशन से महात्मा गांधी के नाम एक प्रसारण जारी करके बापू से आशीर्वाद और शुभकामनायें माँगीं।

25. भारत में रहने वाले उनके परिवार के लोगों का आज भी यह मानना है कि सुभाष की मौत 1945 में नहीं हुई। वे उसके बाद रूस में नज़रबन्द थे।

26. 1928 में जब साइमन कमीशन भारत आया तब कांग्रेस ने उसे काले झण्डे दिखाये। कोलकाता में सुभाष ने इस आन्दोलन का नेतृत्व किया।

27. 1928 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कोलकाता में हुआ। इस अधिवेशन में सुभाष ने खाकी गणवेश धारण करके मोतीलाल नेहरू को सैन्य तरीके से सलामी दी।

28. 26 जनवरी 1931 को कोलकाता में राष्ट्र ध्वज फहराकर सुभाष एक विशाल मोर्चे का नेतृत्व कर रहे थे तभी पुलिस ने उन पर लाठी चलायी और उन्हें घायल कर जेल भेज दिया।



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